नेशनल हेराल्ड केस- इतिहास और पूरी कहानी
नेशनल हेराल्ड-इतिहास
आज़ादी से पहले जवाहरलाल नेहरू इस अख़बार में बेहद सक्रिय थे तब अख़बार तीन साल तक बंद रहा( इसका बहाना तो ब्रितानी सेंसरशिप थी लेकिन कहा जाता है कि असली वजह पैसे की कमी थी।)
नेहरू ने एक बार लखनऊ में नेशनल हेरल्ड के कर्मचारियों के सामने स्वीकार भी किया था, “हमें बनियागीरी नहीं आई।” नेहरू का जुड़ाव 1938 में स्थापित इस अख़बार से इतना ज़्यादा था कि उन्होंने ऐलान कर दिया था, “मैं नेशनल हेरल्ड को बंद नहीं होने दूंगा चाहे मुझे आनंद भवन (इलाहाबाद में मौजूद पारिवारिक घर) बेचना पड़े”।
नेहरू ने 1938 में शुरू किया था नेशनल हेराल्ड
नेहरू के जीवनी लेखक बेंजामिन ज़कारिया ने लिखा है, “कांग्रेस में अंदरूनी खींचतान के कारण उलझनों में घिरे नेहरू ने पत्रकारिता में शरण ली थी। 1936 में उन्होंने अपना अख़बार चलाने पर विचार किया। नौ सितंबर 1983 को नेशनल हेरल्ड का पहला औपचारिक अंक लखनऊ से आया।”
आज़ादी के बाद नेशनल हेरल्ड तब तक आराम से चला जब तक फ़िरोज़ गांधी इसके महाप्रबंधक थे और इसे नेहरू का समर्थन हासिल था। कई बार नेहरू ने बतौर प्रधानमंत्री अपने विचार स्पष्ट रूप से कहने के लिए नेशनल हेरल्ड का इस्तेमाल किया।
कभी पैरों पर खड़ा नहीं हो सका नेहरू का यह सपना
दिल्ली में तब इस तरह की अफ़वाहें उड़ती थीं कि कांग्रेस ने संदिग्ध तरीकों से जो पैसा कमाया है, उसे अख़बार में झोंका जा रहा है। यह ऐसा आरोप था जो अक्सर लगाया जाता था लेकिन कभी साबित नहीं हो सका। 22 मई, 1991 को नेशनल हेरल्ड राजीव गांधी की हत्या की ख़बर को ब्रेक नहीं कर पाया क्योंकि एक रात पहले श्रीपेरंबदूर में उनकी हत्या के बाद मायूसी की भावना छा गई थी।
2008 में पूरी तरह बंद हुआ अखबार का प्रकाशन
पहले यह लखनऊ में बंद हुआ और एक अप्रैल, 2008 को इसके अंतिम संस्करण में एक घोषणा थी कि इसका ‘संचालन अस्थाई रूप से रोक दिया गया है’। 1991 से 2008 की यात्रा दरअसल कष्टप्रद थी। अख़बार से जुड़े कई पेशेवर और अच्छे पत्रकारों को पैसा नहीं दिया गया, अंततः 40 करोड़ रुपए में जो समझौता हुआ उससे उम्मीद के विपरीत बहुत कम लोगों को फ़ायदा हुआ।
हालांकि कहा जाता है कि 2011 में सोनिया गांधी की बीमारी और राहुल गांधी की अनुभवहीनता की वजह से ट्रस्ट और ट्रस्टियों के कुछ कट्टर सलाहकारों ने इसे पुनर्जीवित करने की बड़ी योजना बनाई।
अख़बार से जुड़ी देश भर में फैली कई कथित संपत्तियों और ज़मीन को ख़रीदने और बेचने वाले बहुत सारे थे और कई उलझाने वाले मुक़दमे थे। यह तो नहीं कहा जा सकता कि नई व्यवस्था पूरी तरह ग़ैरकानूनी थी लेकिन इनसे अनुचित काम की गंध आती थी।
ऐसा लगता है कि नेशनल हेरल्ड का मुद्दा कुछ और वक़्त तक नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ने वाला। शायद उन्हें अख़बार के कारोबार में हाथ डालने के बारे में नेहरू की पुरानी टिप्पणी पर फिर विचार करना चाहिए कि ‘हमें बनियागीरी नहीं आई’।
Source – Amarujala.com